
हरेक रिश्ते की अपनी अलग महक होती है. पिता के साथ मेरे रिश्ते की खुशबू, मिट्टी का सोंधापन लिए हुए थी. उनके शरीर पर मिट्टी का कोई कण न होने के बावजूद मैं जब भी उनके शरीर पर लेटता था, तो उनके शरीर से मुझे मिट्टी की एक भीनी-भीनी महक नाक से मेरे भीतर तक प्रवेश कर जाती थी. उस समय से ही मिट्टी की इस खास महक से मेरा लगाव हो गया. आज मैं उनके शरीर पर नहीं लेट सकता हूं, फिर भी उनकी इस महक को हर वक्त महसूस जरूर करता हूं. मैं अपने पिताजी को अपनों के बीच ‘बाबू’ कहता था. दूसरों को सामने बाबूजी.
अगर मैं पिता के बारे में लिखने की सोचता हूं, तो कहां से....किस बात से.....उनकी रेखाओं को उकेरना शुरू करूं, ये समझ नहीं आता. मेरे लिए निजी जीवन को सार्वजनिक करना या उसके बारे में लिखना, सबसे मुश्किल है. इसमें पिता के बारे में लिखना या बोलना तो और भी मुश्किल है.
हम अपने पिता को लगातार समझने की कोशिश करते हैं, लेकिन समझ नहीं पाते. वे हर बार हमारी बनाई हुई छवि को तोड़ देते हैं. हम उन्हें उनके जाने के बाद थोड़ा-थोड़ा समझना शुरू करते हैं, क्योंकि इन छवियों को तोड़ने के लिए वे खुद मौजूद नहीं होते .
सच तो ये है कि हम पिता के जाने के बाद ही उन्हें पिता मानने की शुरुआत करते हैं. इससे पहले वे हमारे लिए बहरूपिये जैसे होते हैं. कई रूपों के भीतर उनका अपना खुद का क्या रूप है, ये हम देख और समझ ही नहीं पाते हैं. मैंने खुद उनके भीतरी रूप को उनकी जिंदगी के आखिरी कुछ महीनों में देखा था. स्कॉलर होने के बावजूद उन्होंने कच्ची उम्र में ही तमाम जिम्मेदारियों की बोझ के नीचे अपने मौलिक रूप को कहीं दबा दिया था.
लेकिन, उन्होंने हमें नहीं दबने दिया. अगर कहा जाए तो उन्होंने हमारे व्यक्तित्व को मिट्टी की तरह छोड़ दिया. अब ये फैसला हमारे ऊपर था कि हम अपनी इस मिट्टी से खुद को किस आकार में ढालते हैं.
परिवार की आर्थिक स्थितियों के चलते हमारे लिए आगे बढ़ने के लिए रास्ते काफी सीमित थे, सुविधाएं न के बराबर थीं. लेकिन उन्होंने हमेशा हिम्मत देने में कोई कमी नहीं की थी. इस मामले में वे बहुत खर्चीले थे. यही वजह थी कि उन्होंने किसी भी काम करने से हमें रोका नहीं. जब मैं दसवीं क्लास में 1500 मीटर दौड़ प्रतिस्पर्धा में स्कूल की ओर से राज्य स्तर पर प्रथम आया था. उस वक्त उन्होंने मुझे भावुक होकर टूटते शब्दों के सहारे बताया कि उन्हें विश्वास नहीं था कि मैं ऐसा कर सकता हूं. ये बात वे पहले मुझे बताते तो शायद मैं दौड़ने से पहले ही थम जाता.
ठीक इसी तरह, अच्छी तैयारी और लोगों की तमाम उम्मीदों के बीच जब मैं यूपीएससी (आईएएस) की पढ़ाई को छोड़कर पत्रकारिता की ओर चला गया तो उन्होंने मुझसे ये भी न पूछा कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं. जहां तक संभव हुआ, उन्होंने मुझे सपोर्ट ही किया. उनकी नजर में विद्वान (इंटेलेक्चुअल) लोग पत्रकार होते थे. शायद उनका समय ऐसा था भी.
उनका समय बहुत सारी चीजों का था, लेकिन वे उन चीजों के लिए नहीं थे. वे जिम्मेदारियों के लिए थे....किसी के भाई......किसी के पति.....किसी के पिता.... किसी के चाचा, किसी के लिए मेहनती और ईमानदार कर्मचारी....वे अपने लिए कुछ नहीं थे. वे खुद के लिए अपने भीतर कुछ भी बचाकर नहीं रख पाए. शायद वे खुद के लिए बहरूपिया हो गए थे. क्या सबके पिता ऐसे ही होते हैं? बहरुपिये? या मेरे पिता ऐसे थे, या कुछ लोगों के पिता ऐसे होते हैं?
लेखक अज्ञेय ने लिखा है,
‘कितनी दूर जाना होता है पिता से,
पिता जैसा होने के लिए’
आज जब समय गुजरने के साथ मैंने अनचाहे तरीके से बहुत धीरे-धीरे उनके जैसा होता जा रहा हूं तो हमारे बीच की दूरी कम होती जा रही है. एक दिन मैं उनके जैसा हो जाऊंगा और उस दिन शायद हमारी बीच के ये दूरी खत्म हो जाएगी. शायद....
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